इस बार शुरूआत आपकी 'नेपथ्य' की बात से। यह हमारे लिये अत्यन्त हर्ष का विषय है कि आपकी 'नेपथ्य' अब गूगल पर भी उपलब्ध है। गूगल ने ऐसी पत्रिकाओं, जो अच्छी हैं, अच्छी विषय-वस्तु के साथ हैं, के लिये एक प्रोजेक्ट 'नवलेखा' आरम्भ
किया है जिसके माध्यम से ऐसी पत्रिकाएं आनलाईन हो सकेंगी। तो आपकी 'नेपथ्य' र्भ लिये चयनित हो कर अब गूगल पर उपलब्ध है। आप वहाँ अपनी प्यारी 'नेपथ्य' को देख पढ़ सकते हैं। इसके लिये आपको बस google पर nepathya.page टाईप कर के एक क्लिक भर करना है, और आपकी 'नेपथ्य' आनलाईन आपके सम्मुख होगी। यह हमारे लिये एक नये आसमान का आरंभ हो सकता है। ये सफर हमें कहाँ तक ले जा सकेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इतना तो तय है कि आपकी 'नेपथ्य के लिये एक नया आसमान खुल गया है, एक नयी उड़ान के लिये, कुछ नयी संभावनाओं के लिये, ये उड़ान हमें किस मंजिल तक ले जायेगी, ये हम सभी साथ मिल कर देखेंगे, जैसे आपकी 'नेपथ्य' के अभी तक के साढ़े सात साल के लम्बे सफर में हम सभी इसके हर उतार-चढ़ाव में साथ-साथ रहे हैं, आगे भी हम ये कहेंगे, हम साथ साथ हैं।
आपकी 'नेपथ्य' का आरंभ जनवरी 2012 से हुआ था, सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य से। हमारा ये मानना था कि वैसे तो हम सभी अपने व्यक्तिगत जीवन की जद्दोजहद में आमूल-चूल इबे रहते हैं लेकिन कुछ तो समय हमें निकाल के अपने देश-समाज के बारे में सोचना और कुछ करने का भाव मन में लाना चाहिये। हमें दीन-दुनिया के बारे में कुछ तो करने का प्रयास करना चाहिये। और हमने माध्यम चुना साहित्य को। एक समय था जब साहित्य के माध्यम से समाज में प्रेरक संदेश जाते थे, लोग, भले ही वे मध्यम वर्ग के हों, लेकिन उनके लघु बजट में भी पत्रिकाओं के लिये कुछ हिस्सा जरूर हुआ करता था। सरिता-मुक्ता, रीडर्स डाईजेस्ट, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मायापुरी, ब्लिट्ज़ जैसी पत्रिकायें आम घरों में भी दिखाई दे जाती थीं। घर पहुँच सेवा नहीं होने के बावजूद दुकानों-स्टालों से खरीद कर वो पत्रिकायें नियमित रूप से लाई जाती थीं। उनमें छपी कहानियाँ, आलेख आम लोग पढ़ते थे और उनसे प्रभावित होते थे। उनकी प्रेरणायें, संदेशों को अपने निजी जीवन से आत्मसात करते थे और समाज में एक स्वस्थता बनी रहती थी। लोग प्रेमचन्द की कहानियों को, जो उनके खुद के जीवन के कही आस-पास होती थीं, पढ़ते थे और विपरीत परिस्थितियों में भी नमक के दरोगा को भ्रष्टाचार के आगे हार ना मानते देखते थे या समाज की बुराईयों से संघर्ष करते अपने जैसे चरित्रों को पढ़ते थे तो उनके भीतर भी एक आत्मबल का निर्माण होता था जो समाज में अच्छाईयों के स्थापित होने में मददगार होता था। धीरे-धीरे समय काल परिवर्तन में साहित्य आम जीवन से दूर होने लगा, और समाज में अवनति बढ़ने लगी। समाज पर साहित्य के अभाव का प्रभाव आज हम चारों ओर देख रहे हैं। लोग चारित्रिक पतन की ओर उन्मुख होते जा रहे हैं। और इसके लिये उनकी आत्मायें एक बार भी उनका विरोध नहीं करती हैं। हम अपने ही भीतर की आवाज तक नहीं सुन पा रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में, चमक-दमक के इस दौर में, सफलता और पैसा ही एकमात्र लक्ष्य बनता जा रहा है, चाहे इसके लिये किसी भी मानसिक अधोपतन तक जाना पड़े। आखिर हमें कहीं तो किसी बिन्दु, किसी पड़ाव पर ठहर कर इस पर विचार तो करना पड़ेगा कि इस तरह समाज कहाँ जायेगा। जिस तरह बाजारवाद हमारी मानवता को, सविचारों को, सहिष्णुता को, लीलता जा रहा है, आखिर इसकी परिणति कहाँ जा कर ठहरेगी ?
साहित्य की स्थिति ऐसी है कि लोग पूछने लगे हैं कि अच्छा साहित्य अब नहीं लिखा जा रहा है क्या ? सवाल ये भी है कि साहित्य अब पढ़ा कहाँ जा रहा है। कुछ समय पहले मैंने एक अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन में यह बात चर्चाओं में उठाई थी कि आज पाठक कहाँ हैं। बड़े-बड़े साहित्यकार जो लिख रहे हैं, उन्हें पढ़ कौन रहे हैं ? स्थिति तो यही है कि आज लिखने वाले ही लिखने वालों को पढ़ रहे हैं। जो लिखते नहीं हैं, वो पढ़ते कहाँ हैं ? फिर पाठक कहाँ हैं ? लेखक ही पाठक हैं तो फिर साहित्य जो भी रचा जा रहा है, उसका उद्देश्य क्या है ? सिर्फ विमोचनों-लोकार्पणों तक ही साहित्य रह गया तो इसका उद्देश्य क्या है? आपकी नेपथ्य' ने एक छोटा सा प्रयास किया है इस खाई को पाटने का। अपने छोटे-छोटे नन्हें-नन्हें हाथों से ही सही। अपने पाठकों, पंजीकृत सदस्यों को उनके जन्मदिन पर उनकी फोटो सहित उन्हें जन्मदिन की बधाई का प्रकाशन कर के। सदस्यों के नामों का प्रकाशन कर के। इस छोटे से प्रयास से, ऐसे लोग जो लिख नहीं सकते, वो भी इस पत्रिका में प्रकाशित हो जाते हैं, और उनका एक जुड़ाव इस पत्रिका से हो जाता है। आज आपकी 'नेपथ्य' के पंजीकृत पाठकों की संख्या लगभग 500 है, जो इस पत्रिका के इस प्रयास की छोटी ही सही, किंचित सफलता का प्रतीक तो अवश्य है। और इस बहाने ही सही, इस लगभग यथार्थ, कि 'लिखने वाले ही लिखने वालों को पढ़ रहे हैं, को चुनौती तो दी है। आज यह पत्रिका पंजीकृत-अपंजीकृत लगभग 700 परिवारों में, भोपाल के 70 पुस्तकालयों-वाचनालयों में, देश के तीन राज्यों के तीन कालेजों में, जाती हैतो इतनी गारंटी तो है कि कम से कम 1500 'नहीं लिखने वाले इसे पढ़ते तो हैं। और, आप जैसे सुधी-जनों के इसी जुड़ाव-लगाव ने ही आठवें वर्ष तक में भी आपकी इस पत्रिका को नियमित रूप से चलायमान रखा है।
यह नन्हीं सी नौका, नन्हीं सी पतवार सही।
तूफानों-झंझावातों की तीखी होती धार सही।।
साथ मिले, हाथ मिले, नन्ही सी दुआओं का,
मंजिल मिलेगी, इस पार नहीं उस पार सही।
बहरहाल अब कुछ बातें देश-दुनिया की कर ली जायें। इस बार चुनावों के कारण बजट मानसून के साथ आया। इस पर भी बड़ा शोर-शराबा रहता है भाई। बनाने वाले कहते हैंविकासोन्मुखी है, रोजगारोन्मुखी है, विपक्षी कहते हैं इससे जनता दुखी है। हम तो बजट का क, ख, ग भी नहीं जानते, कम्बख्त अपने घर का ही बजट समझ नहीं आता, अक्सर बिगड़ा ही रहता है, तो देश का क्या खा कर समझेंगे। हाँ इतना जरूर पढ़ा कि इससे सेन्सेक्स नीचे आ गया और इतना जरूर देखा कि पेट्रोल-डीजल का दाम उपर चला गया। अब सेन्सेक्स से तो हम पे कोई फर्क पड़ता नहीं भाई, लेकिन पेट्रोल-डीजल का दाम बढ़ने से पैरों के नीचे की जमीन थोड़ी सी और खिसक गई। क्योंकि इससे सब कुछ थोड़ा-थोड़ा और महंगा हो जायेगा, गरीब के निवाले में से एक मात्रा और कम हो जायेगी, उस बेचारे के कहीं आने-जाने का एक फेरा कम हो जायेगा, खैर वो तो हमेशा की तरह एडजस्ट कर ही लेगा, सदियों से आदत पड़ी हैउसे चादर के हिसाब से पैर सिकोड़ने की, थोड़ा सा और सिकोड़ लेगा। देश के लिये इतना तो वो कर ही लेगा।
हाँ, बजट की एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी। बजट में एक रूपया कहाँ कहाँ से आता है, और एक रूपया कहाँ कहाँ जाता है, पढ़ा, कि 20 पैसा उधार से आता है और 18 पैसा ब्याज में जाता है। सिर घूम गया कि ब्याज दर क्या है? फिर वो उधार चुकेगा कैसे ? अगले बजट के उधार से ? वाह, क्या फन्डा मिला। दिल बाग-बाग हो गया। दौड़ा-दौड़ा अपने किराने वाले के पास गया, दिखाया उसे, कि देखो देश के बजट में भी ये प्रावधान है और तुम नाहक पिछला उधार वापिस न करने पर नया उधार नहीं देने की रट लगाये रहते हो। कुछ सीखो हमारे देश के इतने बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों से। अब कभी आना-कानी ना करना। ये तो देश-द्रोह होगा, तुम देश-द्रोही कहलाओगे। किराने वाले ने चुपचाप बिना पिछला हिसाब क्लीयर करने की बात किये, फिर से उधार में किराना दिया और हम बल्लियों उछलते दिल को संभालते हुए बजट का सबसे बड़ा लाभ उठाते हुए हर्षाये-हर्षाये घर आ गये, बजट बनाने वालों को दिल से 'बैंक्यू बोलते हुए। आप भी इसका लाभ अवश्य उठाईयेगा।तो समझ में आया कि देश का बजट ही जब घाटे का होता है, तो अगर अपने घर का बजट भी घाटे का है तो इसमें फर्क ही क्या है। हाँ इधर आपकी पत्रिका का भी बजट कुछ ऐसा ही चल रहा है, लेकिन हमें यकीन है कि आप पाठक-गण हमेशा की तरह अपनी सदस्यता के नवीनीकरण का शुल्क प्रेषित कर के इसके बजट को घाटे का नहीं बनने देंगे, और इसे सदैव प्रगति-पथ पर अग्रसर करते रहेंगे। अपना प्यार-सहकार-उधार सदैव देते रहेंगे। इस बार इतना ही, शेष-अशेष इस बार इतना ही, शेष-अशेष फिर... ..